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डॉ. ए. के. चौधरी
जोनल कृषि अनुसंधान केन्द्र
पवारखेड़ा (होशंगाबाद )
9406561040
arun10091959@rediffmail.com |
गन्ने एक महत्वपूर्ण नगदी फसल है। प्रदेश के हरदा, बुरहानपुर, खरगौन
, इन्दौर
, देवास, सीहोर, गुना, ग्वालियर, होशंगाबाद
एवं जबलपुर संभाग के सभी सभी ज़िलों में प्रायः
सभी ऐसी जगह लगाई जाती है जहाँ सिंचाई की उचित व्यवस्था तथा खेत में पानी का निकास
अच्छा होता है।
खेत की तैयारी:
दोमट भूमि जिसमें पानी का
निकास अच्छा हो,
गन्ने के लिये सर्वोत्तम होती है। भूमि की तैयारी के लिये ग्रीष्म
ऋतु में मिट्टी पलटने वाले हल से दो बार गहरी जुताई करें। अक्टूबर माह के प्रथम
सप्ताह में जुताई कर पाटा चलायें एवं खेत समतल करें। रिजर की सहायता से खेत में 3 फीट
की दूरी पर नालियाँ बनायें। बसंतकालीन गन्ने जो फरवरी - मार्च में लगाया जाता है, हेतु नालियों का अतंर 2 फीट
रखें।
उन्नत बीज:
नम एवं गर्म वायु (54
से.ग्रे. तापमान एवं 85 प्रतिशत आद्रता की वायु) से स्वस्थ, कीट व रोग रहित बीज का 4 घंटे
तक उपचार कर उपयोग करें।
किस्में:
शीघ्र पकने वाली किस्में - को. सी. 671, को 94008, को.
जवाहर 86-141
एवं को जवाहर 86-572
लगावें। गुड़ बनाने के लिये को. सी. 671, को. जवाहर 86-141
एवं को. 86-572
सर्वोत्तम है। इन किस्मों की उपज 1000-1200 क्विंटल प्रति
हेक्टेयर होती है।
मध्यम - देर से पकने वाली किस्में
- को.
7318, को.
86032, को.
99004, को.
जे.एन. 86-600
लगायें। को. जे.एन. 86-600 एवं को 86032 गुड़
बनाने के लिये अधिक उपयुक्त है। इन जातियों की उपज 1200 - 1400 क्विंटल
प्रति हेक्टेयर होती है।
बुवाई का समय:
अधिक उपज के लिए बुवाई का
सर्वोत्तम समय अक्टूबर-नवम्बर माह है। गन्ने की बोनी मार्च तक की जा सकती है।
बसंतकालीन गन्ने फरवरी-मार्च में लगायें।
अंतरवर्तीय फसलें:
अक्टूबर-नवम्बर माह में 90
से.मी. की दूरी पर निकाली गरेड़ों में गन्ने की फसल बोते ही मेड़ों के दोनों ओर
प्याज़, लहसुन, आलू, राजमा, ईसबगोल, चंद्रसूर
तथा सीधी बढ़ने वाली मटर लगाना बहुत उपयुक्त है। इन फसलों से गन्ने की फसल पर
आच्छादन क्षति नहीं होती है तथा इनसे किसान को अतिरिक्त नगद लाभ हो है।
बसंतकालीन फसल में गरेड़ों की
मेड़ों के दोनों ओर मॅूग या उड़द लगाना बहुत लाभदायक है। इन अंतवर्तीय फसलों से
अतिरिक्त लाभ मिलता है। अंतरवर्तीय फसलों हेतु खाद की निर्धारित मात्रा, गन्ने की
फसल में दी गई खाद की मात्रा के अतिरिक्त दें।
बीजोपचार व बोवाई:
गन्ने के दो या तीन आँख वाले टुकड़े को
कार्बेन्डाज़िम (0.1 प्रतिशत )/बैविस्टीन (2
ग्राम/ली पानी) के घोल में 15 - 20
मिनिट तक डुबाना चाहिये। इसके पश्चात् टुकड़ों को नालियों में रखकर मिट्टी से ढंक
कर सिंचाई कर दें या नालियों में सिंचाई करके टुकड़ों को हल्के से नालियों में दबा
दें। बीज की मात्रा 1,25,000 आॅखें (कलिकायें) या 100
से 125
क्विंटल बीज प्रति हेक्टेयर लगावें।
खाद एवं उर्वरक:
गन्ने में 300
किलोग्राम नत्रजन (650 किलोग्राम यूरिया), 80
किलोग्राम स्फुर (500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट) एवं 60
किलोग्राम पोटाश (100
किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश ) प्रति
हेक्टेयर दें । स्फुर एवं पोटाश की पूरी
मात्रा बोनी के पूर्व गरेड़ों में दें। नत्रजन की मात्रा, अक्टूबर में बोई गई फसल
के लिए 4
भागों में बाँट कर अंकुरण के समय (30
दिन), कल्ले
निकलते समय (90
दिन), हल्की
मिट्टी चढ़ाते समय (120 दिन) व भारी मिट्टी चढ़ाते समय (150
दिन) दें। फरवरी में बोई फसल के लिए, नत्रजन की कुल मात्रा को 3
बराबर भागों में बाँट कर अंकुरण के समय (30 दिन), हल्की
मिट्टी चढ़ाते समय (90 दिन) व भारी मिट्टी चढ़ाते समय (120
दिन) पर दें। गन्ने की फसल में एक चैथाई मात्रा की पूर्ति अच्छे प्रकार से पकी हुई
गोबर की खाद,
कम्पोस्ट, केंचुआ खाद या हरी खाद से करें।
उर्वरक की बचत:
1. यूरिया
उर्वरक को नीम,
महुआ या करंज की खली के बारीक पावडर से उपचारित करें तथा नत्रजन की
बचत करें।
2. गन्ने
मिल का व्यर्थ पदार्थ सल्फीनेटेड प्रेसमड
केक की 6
टन प्रेसमड केक तथा 5 किलोग्राम एज़ेटोबैक्टर जीवाणु खाद का प्रयोग
कर 75
किलोग्राम नत्रजन की बचत करें ।
जैविक खाद:
जैविक खाद किसी भी फसल के
लिये पोषक तत्वों का पूरक स्त्रोत हैं। गन्ने की फसल में एज़ोस्पीरिलियम, एजेटोबेक्टर
एवं फास्फोबैक्टेरिया की पहचान मुख्य जैविक खादों के रूप में की गई है। यह जैविक
खादें 20
प्रतिशत नत्रजन एवं 25 प्रतिशत
स्फुर की प्रतिपूर्ति प्रत्यक्ष रूप से कर
सकतें है एवं अप्रत्यक्ष रूप से गन्ने वृद्धि में सहायक होते हैं। एज़ोस्पीरिलियम एवं एज़ैटोबैक्टर
वायुमंडल से नत्रजन से लेकर गन्ने के पौधे को उप्लबध कराता है। फ़ॉस्फोबैक्टीरिया
जड़ों के आसपास की मिट्टी में रहते हुए मृदा की अघुलनशील, अनुपलब्ध
स्फुर को घुलनशील उपलब्ध स्फुर परिवर्तन कर पौधे को उप्लब्ध कराता है।
सूक्ष्म पोषक तत्व:
गन्ने के शर्करा संचय एवं तंतु भाग हेतु नत्रजन, स्फुर, पोटाश
जैसे सूक्ष्म पोषक तत्वों का विशेष योगदान होता है। सूक्ष्म पोषक तत्वों का
प्रबंधन जो कि समय - समय पर कराये गये मृदा परीक्षण पर आधारित हो अथवा फसल के
लक्षणों पर आधारित हो, गन्ने का उत्पादन
बढ़ाता है। सामान्यतः गन्ने में लौह एवं ज़िंक
की कमी पाई जाती है। इनकी कमी को पूरा करने हेतु फेरस सल्फेट 50
किलोग्राम/हेक्टेयर, ज़िंक सल्फेट 25 किलोग्राम/हेक्टेयर मृदा में
मिलायें ।
निंदाई एवं गुड़ाई:
बोवाई के लगभग 4 माह
तक खरपतवारों की रोकथाम आवश्यक है। इसके लिये 3-4 बार निंदाई करें । खरपतवारों
के रासायनिक नियंत्रण के लिये एट्राजिन 1 किलो सक्रिय तत्व/हेक्टेय,र 600
लीटर पानी में घोलकर अंकुरण पूर्व छिड़काव करें । बाद में उगे चौड़ी पत्ती
खरपतवारों के लिये 2-4 डी, सोडियम सॉल्ट 0.5
किलो ग्राम सक्रिय तत्व/हेक्टेयर 600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव
करें । छिड़काव के समय खेत में नमी होना आवश्यक है।
मिट्टी चढ़ाना:
गन्ने को गिरने से बचाने के
लिए रिजर की सहायता से मिट्टी चढ़ायें । अक्टूबर- नवम्बर माह में बोई फसल में प्रथम
बार मिट्टी मई माह में चढ़ायें ।
सिंचाई:
गर्मी के दिनों में भारी
मिट्टी वाले खेतों में 8-10 दिन के अंतर पर एवं ठंड के दिनों में 15
दिनों के अंतर से सिंचाई करें। हल्की मिट्टी वाले खेतों में, गर्मी के दिनों में 5-7
दिनों के अंतर से व ठंड के दिनों में 10 दिन के अंतर से सिंचाई करें ।
सिंचाई सर्पाकार विधि से करें। सिंचाई की मात्रा कम करने के लिये गरेड़ों में
गन्ने की सूखी पत्तियों की 10-15 से.मी. तह बिछायें। गर्मी
में पानी की मात्रा कम होने पर एक गरेड़ छोड़कर सिंचाई देकर फसल बचावें। कम पानी
उपलब्ध होने पर ड्रिप (टपक विधि) से सिंचाई करने से भी 40 प्रतिशत
पानी की बचत होती है।
गर्मी के मौसम तक जब फसल 5-6
महीने तक की होती है स्प्रिंक्लर (फव्वारा विधि) से सिंचाई कर पानी की बचत करें।
वर्षा के मौसम में खेत में उचित जल निकास का प्रबंध रखें। खेत में पानी के जमाव
होने से गन्ने की बढ़वार एवं रस की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
बंधाई:
गन्ने न गिरें इसके लिये गन्नों को गन्ने की ही पत्तियों
से बाँधें। यह कार्य अगस्त के अंत में या सितम्बर माह में करें ।
पौध संरक्षण
गन्ने की फसल को रोग व कीटों
से बचाव के लिये निम्न पौध संरक्षण विधि अपनायें:
कीट प्रबन्धन:
1. अग्र
तना छेदक के प्रकोप से बचाव हेतु अक्टूबर-नवम्बर में बोनी करें।
2. गन्ने
के टुकड़ों को क्लोरपायरीफॉस के 0.1 प्रतिशत घोल में 15
मिनिट तक डुबा कर बीजोपचार करें।
3. अग्रतना
छेदक के प्रकोप के नियंत्रण हेतु फोरेट 10 जी दानेदार, 1.5
किलोग्राम सक्रिय तत्व /हेक्टेयर या कार्बोफ्यूरॉन 3 जी दानेदार दवा, 1
किलोग्राम सक्रिय तत्व/हेक्टेयर को जड़ों के पास डालें।
4. पायरिला
एवं सफेद मक्खी नियंत्रण के लिये इमिडाक्लोप्रिड 0.005 प्रतिशत
घोल 600
लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़कें।
5. पायरिला
कीट के जैविक नियंत्रण हेतु जब 3-5 शिशु/प्रौढ़ प्रति पत्ती हो तो
एपीरिकेनिया के जीवित 4000 - 5000 ककून या 4 - 5
लाख अंडे/हेक्टेयर की दर से छोड़े।
6. शीर्ष
तना छेदक का प्रकोप होने पर ट्राएज़ोफ़ोस 40 ई.सी. 1200 मि.ली/ हेक्टेयर 600 लीटर
पानी में मिलाकर की दर से जड़ों के पास डालें।
रोग प्रबन्धन:
1. उकठा
रोग:
यह गन्ने का एक प्रमुख
रोग है जो लगभग पूरे संभाग में व्याप्त है। इस रोग के कारक, गन्ने के बीज के साथ
रहतें हैं जिससे रोग एक स्थान से दूसरे स्थान तक सरलता से पहुँच जाती है। इसके
बीजाणू भूमि में फैल जाते हैं।
कारक: यह रोग फ्यूजेरियम मोनीफॉरमिस तथा एफ ऑक्सीस्पोरम नामक
फफूँद से होती है।
लक्षण: वर्षा ऋतु के उपरांत पत्तियाँ
पीली पड़ने व मुरझाने लगती हैं तथा बाद में धीरे-धीरे सूखने लगती हैं। प्रभावित
पौधों की बढ़वार कम हो जाती है। उग्र अवस्था में पत्तियाँ पीली पड जाती हैं तथा पौधे
सूख जाते हैं। यदि रोग् ग्रसित गन्ने फाड़
कर देखें तो अंदर का भाग मटमैला रंग का दिखाई देता है। रोग ग्रसित गन्ना खोखला हो जाता है तथा गन्ने के अंदर फफूँद की
बढ़वार देखी जा सकती है।
रोग
नियंत्रण:
स्वस्थ व रोग रहित गन्ने के बीज का प्रयोग करें। उकटा अवरोधी किस्मों को उपयोग में
लायें जैसे को. जे.एन. 86-141, को. जे.एन. 86-600, को.
99004, को.
94008
तथा को. 86032।
बुवाई से पूर्व गन्ने के बीज को कार्बैंडाज़िम (0.1 प्रतिशत
)/बैविस्टीन (2
ग्राम/ली पानी) से बीजोपचार करें।
2. लाल सड़न:
यह भी एक महत्वपूर्ण व अधिक हानि पहुँचाने वाली फफूँद जनित रोग है। इस रोग का प्रभाव प्रदेश के उत्तर पश्चिम
भाग में अधिक पाया जाता है। यह रोग बीज जनक होता है। परंतु इसका कारक प्रकोप फसल
कट जाने के उपरांत मृदा तथा फसल अवशेष पर रहने लगता है।
इस रोग का प्रकोप दोमट भूमि तथा अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में अधिक होता है।
कारक: यह रोग कोलेटोट्राईकम फ़ॉल्केटम
नामक फफूँद के द्वारा होता है। इस रोग का
प्रसारण रोग ग्रसित फसल की पेड़ी व रोग ग्रसित बीज का फस्लोत्पादन में उपयोग के कारण्
होता है।
लक्षण: प्रारम्भ में, वर्षा के उपरांत
रोगी पौधे की ऊपरी 2-3 पत्तियों के नीचे की पत्तियों के किनारे
से पीले पड़ कर सूखने लगते हैं तथा नीचे की ओर झुक जाते हैं । पत्तियों की मध्य शिरा
पर लाल कत्थई रंग के धब्बों दिखाई पड़ने लगते हैं जो बाद में राख के रंग के हो जाते
हैं। धब्बों के बीच में फफॅूद के बीजाणुओं के समूह काले बिंदु के रूप में दिखाई
देते हैं। रोगग्रसित गन्ने को फाड़कर देखने पर अंदर गन्ना चमकीला लाल रंग का दिखाई
देता है तथा बीच-बीच में सफेद रंग की आड़ी पट्टी दिखाई देती है। रोग ग्रस्त भाग से
सिरका या शराब जैसी दुर्गंध आती है। रोग की उग्र अवस्था में गठानो के निकट काले
रंग के बिंदु दिखाई देते हैं।
नियंत्रण: लाल सड़न अवरोधी व सहनशील
किस्में जैसे सी.ओ.जे.एन.86 - 141, सी.ओ. 86032, सी.ओ.99004
व सी.ओ. 94008
का उपयोग करें। बवाई हेतु, पूर्व में बताई गई विधि के अनुसार, गर्म हवा से उपचारित
बीज का उपयोग करें। खेत से पूर्व फसल के अवशेष को नष्ट करें। खेत में पानी निकास
कर उचित व्यवस्था करें। एक ही खेत में एक ही किस्म का उपयोग लगातार न करें। बीज को
फफूँद नाशक दवा कार्बैंडाज़िम (0.1
प्रतिशत )/बैविस्टीन (2 ग्राम/ली पानी) से उपचारित करें।
3. कंडवा रोग:
यह रोग संपूर्ण प्रदेश में
पाया जाता है। यह भी एक फफॅूद जनित बीजजनक रोग है। इसका प्रभाव प्रमुख फसल की अपेक्षा
पेड़ी की फसल पर अधिक होता है।
कारक: यह अस्टिलैगो सिटामिनिया
नामक फफूँद के द्वारा होता है। इसके
बीजाणु गन्ने के बीज में मौजूद रहतें हैं तथा उसके द्वारा ही इनका प्रसारण एक
स्थान से दूसरे स्थान पर होता है। यह फफॅूद अपना जीवनयापन रोग ग्रसित फसल के अवशेष
पर भी करता है।
लक्षण: इस रोग का प्रभाव मई - जुलाई
तथा अक्टूबर - दिसंबर माह में अधिक होता है। रोगी पौधों के सिरे से काले रंग के
चाबुक के आकार के समान संरचना निकलती है। काला चाबुक के आकार वाला भाग काले रंग के
चूर्ण से भरा रहता है जो प्रारंभिक अवस्था में सफेद चमकदार झिल्ली से ढ़का रहता
है। बाद में शुष्क मौसम में झिल्ली फट जाती है जिसके फलस्वरूप हजारों की संख्या
में बीजाणु वायु द्वारा स्वस्थ फसल तक पहुँचते हैं। रोग ग्रसित पौधों के नीचे से
अनेक पतली शाखायें निकलती है जिनकी पत्तियाँ छोटी, संकरी तथा गहरी हरी
रहती है और इनके ऊपरी भाग से भी चाबुक के समान संरचना निकलती है। ग्रसित पौधे
आमतौर पर पतले तथा लंबे होते हैं।
नियंत्रण: कंडवा रोग अवरोधी व सहनशील किस्में जैसे को. जे.एन.86 - 141, को.
जे.एन. 86
- 572, को. जे.एन. 86 - 600, को. 94008, को.
99004
को. 86032
एवं को. 99006
का उपयोग करें। बुवाई पूर्व बीजोपचार कार्बैंडाज़िम (0.1
प्रतिशत)/बैविस्टीन (2 ग्राम/ली पानी) की दर से करें। खेत में मौजूद
पूर्व फसल के अवशेष को जलाकर नष्ट करें। रोग ग्रसित पौधों को भी खेत से बाहर ले जा
कर सावधानी पूर्वक जला दें। प्रमाणित एवं स्वस्थ बीज का प्रयोग करें।
4. घासी
प्ररोह रोग (ग्रासी शूट):
यह रोग प्रदेश कई भागों
में पाया जाता है। इस रोग का विपरीत प्रभाव गन्ने की उपज तथा शक्कर की मात्रा पर
पड़ता है। रोग का प्रभाव जून-सितम्बर तक होता है।
कारक: यह रोग माइक्रोप्लाज़मा
द्वारा होता है।
लक्षण: गन्ने का तने घास के समान पतला हो जाता है तथा
नीचे से एक साथ समूह में कई तने निकलते हैं। रोगी गन्ना पतला होता है, पत्तियाँ
हल्की पीले से सफेद रंग की हो जाती हैं। ग्रसित गन्ने की गठानों की दूरी कम होती
है तथा खड़े गन्ने से आँखों का अंकुरण होना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं।
नियंत्रण: बुवाई से पूर्व बीज को गर्म
नम हवा से 4
घंटे उपचारित करें, यह विधि लेख के प्रारम्भ में सम्झाई गई है। गन्ने काटने हेतु स्चच्छ औजार का उपयोग करें। फसल में
पोषक तत्वों की कमी न होने दें।
कटाई पश्चात् प्रबंधन:
गन्ने की खेती मुख्यतः
शक्कर प्राप्त करने हेतु की जाती है। यदि गन्ने का उपयोग रस निकालने हेतु चैबीस घंटों के अंदर न
किया जाये तो रस एवं रस में शर्करा की मात्रा में कमी आ जाती है। इस क्षति को
रोकने हेतु गन्ने को छाया में रखें एवं पानी का छिड़काव करें।
जड़ी फसल से भरपूर पैदावार:
गन्ना उत्पादक यदि जड़ी फसल पर भी बीजू फसल की तरह ही
ध्यान दें और बताये गये कम लागत वाले उपाय अपनायें, तो जड़ी से भी भरपूर
पैदावार ले सकतें हैं -
1.
समय पर गन्ने की कटाई:
मुख्य फसल को समय पर काटने से पेड़ी की अधिक उपज ली जा सकती है। नवम्बर माह में
गन्ने की पेड़ी काटें तथा अधिक उपज प्राप्त करें। यदि फरवरी माह में गन्ने की फसल काटेंगे
तो कल्ले अधिक निकलेंगे और पेड़ी की अच्छी उपज प्राप्त होगी। मार्च के बाद गन्ने न
काटें अन्यथा पेड़ी अच्छी नहीं होगी।
2.
जड़ी फसल दो बार से अधिक न
लें: बीजू फसल के अलावा जड़ी फसल दो बार से अधिक न
लें अन्यथा कीट और रोगों का प्रकोप बढ़ने से पैदावार कम हो जायेगी।
3.
गन्ने की कटाई सतह से करें:
गन्ने की कटाई जमीन की सतह से करें, जिससे कल्ले अधिक फूटेंगें और
उपज अधिक होगी।
4.
ठूँठ काटें:
यदि कटाई के बाद गन्ने के ठूँठ रह जावें तो उनकी कटाई अवश्य करें नहीं तो कल्ले कम
फूटेंगे।
5.
गरेडे़ तोडे़ं:
सिंचाई के बाद बतर आने पर गरेड़ों के बाजू से हल चलायें। इससे पुरानी जडे़ं
टूटेंगीं और नई जड़ें दिये गये खाद का पूरा उपयोग कर पायेंगी।
6.
खाली जगह भरें:
खेत में खाली स्थान का रहना ही कम पैदावार का मुख्य कारण है, अतः
जो जगह एक फुट से अधिक खाली हो उसमें नये गन्ने के टुकड़े लगा कर सिंचाई करें।
2.
7. पर्याप्त उर्वरक दें:
जड़ी का उत्तम उत्पादन लेने के लिये मुख्य फसल की तरह 15-20
गाड़ी पकी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर डालें। बीजू फसल की तरह ही जड़ी फसल में
भी 300
किलोग्राम नत्रजन (650 किलोग्राम यूरिया), 80
किलोग्राम स्फुर (500 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट) एवं 60
किलोग्राम पोटाश (500
किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश ) प्रति
हेक्टेयर की दर से दें । स्फुर व पोटाश की
पूरी मात्रा तथा नत्रजन की आधी मात्रा गरेड़ तोड़ते समय हल की सहायता से नाली में दें
। नत्रजन की बची हुई मात्रा आखिरी मिट्टी चढ़ाते समय दें। नाली में खाद देने के
बाद रिजर या देशी हल में पोटली बाँध कर हल्की मिट्टी चढ़ायें।
7.
सूखी पत्ती बिछायें:
खेत में सूखी पत्तियाँ बिछाने के बाद 1.5 प्रतिशत क्लोरपायरीफॉस का
प्रति हेक्टेयर दवा का छिड़्काव करें।
8.
पौध संरक्षण अपनायें:
कटे हुऐ ठूँठ पर कार्बैंडाज़िम 550 ग्राम मात्रा 250
लीटर पानी में घोल कर झारे की सहायता से ठॅूँठों के कटे हुये भाग पर छिड़के।
9.
जड़ी के लिये उपयुक्त किस्में:
जड़ी की अधिक पैदावार लेने हेतु उन्नत जातियों जैसे को. 7318, को.
6304, को.
86032, को.जे.एन.
86 - 141, को.
जे.एन. 86-600,
को. जे.एन. 86 - 572, को. 94008
तथा को. 99004
का चुनाव करें।